किसी में ताब न थी तोहमतें उठाने की
जले चराग़ तो पलकें झुकीं ज़माने की
जिसे भी देखिए अपनी अना का मारा है
उमीद किस से रखे कोई दाद पाने की
तिरी गली में भी दार-ओ-रसन का चर्चा है
बदल गई है हवा किस क़दर ज़माने की
चराग़-ए-कुश्ता की मानिंद नौहा-ख़्वाँ ये लोग
बने हैं सुर्ख़ी-ए-आग़ाज़ किस फ़साने की
लरज़ते हाथों में साज़-ए-शिकस्ता किस ने लिया
कि जैसे डूब गई नब्ज़ इक ज़माने की
फ़साना शरह-तलब इस क़दर न था लेकिन
कहाँ कहाँ न उड़ी ख़ाक आशियाने की
कुछ और हो गए 'शाहीन' ज़ख़्म-ए-दिल ताज़ा
वो मेरी सई-ए-परेशाँ उन्हें भुलाने की
ग़ज़ल
किसी में ताब न थी तोहमतें उठाने की
वली आलम शाहीन