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किसी को दर्द सुनाना भी कितना मुश्किल था | शाही शायरी
kisi ko dard sunana bhi kitna mushkil tha

ग़ज़ल

किसी को दर्द सुनाना भी कितना मुश्किल था

मर्ग़ूब असर फ़ातमी

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किसी को दर्द सुनाना भी कितना मुश्किल था
मज़ाक़ अपना उड़ाना भी कितना मुश्किल था

हक़ीक़तों पे हसीं पर्दा डालने के लिए
फ़ुसूँ का जाल बिछाना भी कितना मुश्किल था

कभी रहा था जिन आँखों का बन के सुर्मा मैं
उन्हीं से आँख चुराना भी कितना मुश्किल था

वो लन-तरानी में था महव आँख बंद किए
सो उस को शीशा दिखाना भी कितना मुश्किल था

गुलों में की वो लगाई बुझाई सरसर ने
चमन की लाज बचाना भी कितना मुश्किल था

'असर' ख़लल के शरारे थे दश्त-ओ-सहरा में
सुकूँ का ख़ेमा लगाना भी कितना मुश्किल था