किसी को अपने अमल का हिसाब क्या देते
सवाल सारे ग़लत थे जवाब क्या देते
ख़राब सदियों की बे-ख़्वाबियाँ थीं आँखों में
अब इन बे-अंत ख़लाओं में ख़्वाब क्या देते
हवा की तरह मुसाफ़िर थे दिलबरों के दिल
उन्हें बस एक ही घर का अज़ाब क्या देते
शराब दिल की तलब थी शरा के पहरे में
हम इतनी तंगी में उस को शराब क्या देते
'मुनीर' दश्त शुरूअ' से सराब-आसा था
इस आइने को तमन्ना की आब क्या देते
ग़ज़ल
किसी को अपने अमल का हिसाब क्या देते
मुनीर नियाज़ी