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किसी की ज़ीस्त का बस एक बाब सन्नाटा | शाही शायरी
kisi ki zist ka bas ek bab sannaTa

ग़ज़ल

किसी की ज़ीस्त का बस एक बाब सन्नाटा

अहमद कमाल हशमी

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किसी की ज़ीस्त का बस एक बाब सन्नाटा
किसी के वास्ते पूरा निसाब सन्नाटा

है उस को लफ़्ज़ से मतलब मुझे मआ'नी से
है उस का शोर मिरा इंतिख़ाब सन्नाटा

दरून-ए-ख़ाना की वीरानियाँ कुछ ऐसी थीं
बरून-ए-ख़ाना हुआ आब आब सन्नाटा

मुझे पता है कहानी का इख़्तिताम है क्या
तवील बात का लुब्ब-ए-लुबाब सन्नाटा

मिरी ख़मोशी पे उँगली उठाता रहता है
ख़ुद अपना करता नहीं एहतिसाब सन्नाटा

बुलंद होती सदा को दबा के ख़ुश मत हो
ज़रूर लाएगा इक इंक़लाब सन्नाटा

शब-ए-फ़िराक़ तिरी याद मेरी तन्हाई
उदास उदास फ़ज़ा माहताब सन्नाटा

अभी 'कमाल' यहाँ क़हक़हे उछलते हैं
कहीं न कर दे उन्हें एक ख़्वाब सन्नाटा