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किसी की साँस उखड़ती जा रही थी | शाही शायरी
kisi ki sans ukhaDti ja rahi thi

ग़ज़ल

किसी की साँस उखड़ती जा रही थी

अासिफ़ा ज़मानी

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किसी की साँस उखड़ती जा रही थी
में लाचारी से तकती जा रही थी

जो फेंकी कंकरी थी क़ब्र पर वो
दुआ-ए-ख़ैर करती जा रही थी

उधर था हुस्न का इंकार फिर भी
तलब मूसा की बढ़ती जा रही थी

तवाफ़-ए-काबा की ऐसी ख़ुशी थी
कि मेरी साँस रुकती जा रही थी

ज़माने के सितम सहते हुए भी
'ज़मानी' शौक़ करती जा रही थी