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किसी की मुंतज़िर अब दिल की रह-गुज़ार नहीं | शाही शायरी
kisi ki muntazir ab dil ki rah-guzar nahin

ग़ज़ल

किसी की मुंतज़िर अब दिल की रह-गुज़ार नहीं

शबनम वहीद

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किसी की मुंतज़िर अब दिल की रह-गुज़ार नहीं
मगर मुझे तो किसी तरह भी क़रार नहीं

गुलाब कैसे खिले दश्त-ए-आरज़ू में कोई
ये सर-ज़मीन अभी वाक़िफ़-ए-बहार नहीं

सिमट गया था मिरे बाज़ुओं में रात गए
ये आसमान मिरी तरह बे-कनार नहीं

तिरी नज़र ने खिलाए मिरी नज़र में गुलाब
ख़ुद अपने आप पे मौसम को इख़्तियार नहीं

लहूलुहान मिरी उँगलियाँ ये कहती थीं
किसी चटान में अब कोई आबशार नहीं