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किसी की आँखों का ज़िक्र छेड़ें अजीब कुछ पुर-वक़ार आँखें | शाही शायरी
kisi ki aankhon ka zikr chheDen ajib kuchh pur-waqar aankhen

ग़ज़ल

किसी की आँखों का ज़िक्र छेड़ें अजीब कुछ पुर-वक़ार आँखें

महशर इनायती

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किसी की आँखों का ज़िक्र छेड़ें अजीब कुछ पुर-वक़ार आँखें
मगर ख़ुदा वास्ता न डाले बड़ी ही बे-ए'तिबार आँखें

नुमाइशी रस्म-ए-पर्दा-दारी रहेगी जब तक तो ये भी होगा
नक़ाब सरकेगी जब ज़रा भी उठेंगी बे-इख़्तियार आँखें

जहाँ जहाँ रब्त-ए-चशम-ओ-दिल है वहाँ वहाँ बात चल रही है
नहीं तो बज़्म-ए-ख़मोशाँ में हज़ार दिल हैं हज़ार आँखें

नक़ाब उट्ठी तो अपना आलम न तर्क-ए-जल्वा न ताब-ए-जल्वा
नज़र उठी बार बार लेकिन झपक गईं बार बार आँखें

नज़र मिला कर नज़र बचा कर नज़र बदल कर नज़र चुरा कर
नमूना बन बन के कह रही हैं हक़ीक़त-ए-रोज़गार आँखें

किसी से इज़हार-ए-मुद्दआ पर मिरा वो ख़ौफ़-ओ-हिरास 'महशर'
किसी की वो तेज़ तेज़ साँसें किसी की वो बे-क़रार आँखें