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किसी ख़मोशी का ज़हर जब इक मुकालमे की तरह से चुप था | शाही शायरी
kisi KHamoshi ka zahr jab ek mukalme ki tarah se chup tha

ग़ज़ल

किसी ख़मोशी का ज़हर जब इक मुकालमे की तरह से चुप था

नज्मुस्साक़िब

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किसी ख़मोशी का ज़हर जब इक मुकालमे की तरह से चुप था
ये वाक़िआ है कि शहर-ए-क़ातिल बुझे दिए की तरह से चुप था

सहर के आसार जब नुमायाँ हुए तो बीनाई छिन चुकी थी
क़ुबूलियत का वो एक लम्हा मुजस्समे की तरह से चुप था

किसी तअल्लुक़ के टूटने का अज़ाब दोनों के दिल पर उतरा
मैं अक्स बन के ठहर गया था वो आईने की तरह से चुप था

पड़ाव डाले किसी ने आ के हज़ार कोसों की दूरियों में
हमारा दिल कि किसी परिंदा के घोंसले की तरह से चुप था

कहीं से उस को भी मेरी चाहत की कुछ दलीलें मिली थीं शायद
वो अब के आया तो गुज़री शामों के इक समय की तरह से चुप था