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किसी के वादा-ए-फ़र्दा में गुम है इंतिज़ार अब भी | शाही शायरी
kisi ke wada-e-farda mein gum hai intizar ab bhi

ग़ज़ल

किसी के वादा-ए-फ़र्दा में गुम है इंतिज़ार अब भी

शम्स फ़र्रुख़ाबादी

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किसी के वादा-ए-फ़र्दा में गुम है इंतिज़ार अब भी
ख़ुदा जाने है क्यूँ इक बे-वफ़ा पर ए'तिबार अब भी

कभी की थी तमन्ना लाला-ओ-गुल की निगाहों ने
रुलाती है लहू के रंग में फ़स्ल-ए-बहार अब भी

तिरे क़ौल-ओ-अमल में फ़र्क़ मिलता है मुझे ज़ाहिद
ज़बाँ पर लफ़्ज़-ए-तौबा है निगह में है ख़ुमार अब भी

ख़िज़ाँ के बा'द इस उम्मीद पर गुलशन नहीं छोड़ा
ये मुमकिन है कि चल जाए हवा-ए-ख़ुश-गवार अब भी

हमारे दिल को जिस ने 'शम्स' वीरानी इनायत की
उसी को याद करती है निगाह-ए-बे-क़रार अब भी