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किसी के नक़्श-ए-क़दम का निशाँ नहीं मिलता | शाही शायरी
kisi ke naqsh-e-qadam ka nishan nahin milta

ग़ज़ल

किसी के नक़्श-ए-क़दम का निशाँ नहीं मिलता

बासित भोपाली

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किसी के नक़्श-ए-क़दम का निशाँ नहीं मिलता
वो रहगुज़र हूँ जिसे कारवाँ नहीं मिलता

क़दम क़दम पे तिरी राह में फ़लक हाइल
मुझे तलाश से भी आसमाँ नहीं मिलता

उन्हें तरीक़ा-ए-लुत्फ़-ओ-करम नहीं मालूम
हमें सलीक़ा-ए-आह-ओ-फ़ुगाँ नहीं मिलता

उरूस-ए-दहर को ग़ाज़ा भी चाहिए लेकिन
ग़ुबार-ए-जादा-ए-अम्न-ओ-अमाँ नहीं मिलता

तुझे ये ग़म कि ख़ुशी को तिरी सबात नहीं
मुझे गिला कि ग़म-ए-जावेदाँ नहीं मिलता

धड़क रहा है हर अहल-ए-वफ़ा के सीने में
हमारा दर्द भरा दिल कहाँ नहीं मिलता

सभी को दा'वा-ए-महर-ओ-वफ़ा है दुनिया में
जो मेहरबाँ न हो वो मेहरबाँ नहीं मिलता

ग़म-ए-हयात के पुर-हौल क़हक़हों के सिवा
कहीं से अपना जवाब-ए-फ़ुग़ाँ नहीं मिलता

दिल-ए-शिकस्ता को ले जाइए कहाँ 'बासित'
दिमाग़-ए-नख़वत-ए-शीशा-गराँ नहीं मिलता