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किसी के मैं लिबास-ए-आरियत को क्या समझता हूँ | शाही शायरी
kisi ke main libas-e-ariyat ko kya samajhta hun

ग़ज़ल

किसी के मैं लिबास-ए-आरियत को क्या समझता हूँ

मुनव्वर ख़ान ग़ाफ़िल

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किसी के मैं लिबास-ए-आरियत को क्या समझता हूँ
फटे कपड़ों को अपनी ख़िलअ'त-ए-दीबा समझता हूँ

जहाँ दीवाना कोई अपने साए से उलझता है
उसे ज़ुल्फ़-ए-मुसलसल का तिरी सौदा समझता हूँ

मैं गो मजनूँ हूँ पर मतलब नहीं कुछ कोह-ओ-सहरा से
सवाद-ए-शहर ही को ख़ेमा-ए-लैला समझता हूँ

हज़ारों बाग़-ए-दुनिया में तमाशे मैं ने देखे हैं
दो-रंगी को ज़माने की गुल-ए-राना समझता हूँ

नहीं मय-ख़ाना-ए-आलम में मुझ सा मस्त-ओ-बे-ख़ुद है
कि शोर-ए-हश्र को भी क़ुलक़ुल-ए-मीना समझता हूँ

अता की है ख़ुदा ने चश्म-ए-वहदत-ए-बीं मुझे जैसे
जिसे क़तरा समझता था उसे दरिया समझता हूँ

हमें रह रह के याद आता है हंगाम-ए-इताब उस का
दिखा कर आँख कहना रह तो जा कैसा समझता हूँ

ख़त-ए-मुश्कीं को रैहाँ जानता हूँ बाग़-ए-आलम में
तिरी चश्म-ए-सियह को नर्गिस-ए-शहला समझता हूँ

बराबर ग़ैर के भी मर्तबा मेरा नहीं अफ़्सोस
अगरचे आप कहते हैं तुझे अपना समझता हूँ

मक़ाम-ए-इम्तिहाँ में देख लेना एक दिन साहब
रक़ीब-ए-रू-सियह ठहरेगा क्या इतना समझता हूँ

नुमूद इतनी कहाँ थी शायरी में मेरी ऐ 'ग़ाफ़िल'
में इस शोहरत को फ़ैज़-ए-सोहबत-ए-'गोया' समझता हूँ