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किसी के दस्त-ए-इनायत का वो दिया हूँ मैं | शाही शायरी
kisi ke dast-e-inayat ka wo diya hun main

ग़ज़ल

किसी के दस्त-ए-इनायत का वो दिया हूँ मैं

ख़लील राज़ी

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किसी के दस्त-ए-इनायत का वो दिया हूँ मैं
जला दिया है किसी ने सुलग रहा हूँ मैं

दयार-ए-लुत्फ़ में ऐसा शिकस्ता-पा हूँ मैं
लिपट के काँटों से रोए वो आबला हूँ मैं

मुझे मिरी ही रिआ'यत ने कर दिया महरूम
पकड़ पकड़ के जो दामन को छोड़ता हूँ मैं

मुझी में कौन ख़ता है कि जो किसी में नहीं
इक आदमी हूँ यही बस न और क्या हूँ मैं

थके हुए हैं मिरे हौसले कहाँ चल के
ज़रा सा रुक के यहाँ साँस ले रहा हूँ मैं

सनम-कदों की न पड़ जाए हर जगह बुनियाद
जिगर के टुकड़े ज़मीं पर बिखेरता हूँ मैं

गया तो भूल गया कोई दर्द-ए-ज़ख़्म का हाल
वो कश्मकश है कि ग़म से लिपट रहा हूँ मैं