किसी का यूँ तो हुआ कौन उम्र-भर फिर भी
न जाने क्यूँ था यक़ीं तेरे प्यार पर फिर भी
हज़ार बार मिरे दिल को उस ने ठुकराया
मुझे है उस से उमीद-ए-वफ़ा मगर फिर भी
तुम्हारे नक़्श-ए-क़दम पर गया मैं सर-ब-सुजूद
किसी के आगे झुकाया न था ये सर फिर भी
मैं उस की चाह में दोनों जहान छोड़ चला
वो बेवफ़ा न मिरा हो सका मगर फिर भी
तुम्हारी बज़्म से निकले तो फिर मिली न अमाँ
भटकते फिरते रहे गरचे दर-ब-दर फिर भी
न तू ही तू वो रहा और न मैं ही मैं वो रहा
है नक़्श नाम तिरा मेरे क़ल्ब पर फिर भी
मैं अपनी जान भी उस पर लुटा के देख चुका
उसे अज़ीज़ रहा मुझ से माल-ओ-ज़र फिर भी
मैं तुझ को छोड़ के सर फोड़ने कहाँ जाऊँ
मिरे नसीब में है तेरा संग-ए-दर फिर भी
बना सके न तिरे दिल में अपना घर 'आरिफ़'
लुटा दिया तिरी चाहत में अपना घर फिर भी
ग़ज़ल
किसी का यूँ तो हुआ कौन उम्र-भर फिर भी
आरिफ हसन ख़ान