किसी का कोई ठिकाना है कोई ठोर भी है
ये ज़िंदगी है कहीं इस का ओर-छोर भी है
झुला रहा है ये गहवारा कौन सदियों से
अरे किसी ने ये देखा कि कोई डोर भी है
हर आदमी है यहाँ जब्र-ओ-इख़्तियार के साथ
मगर ये देख किसी का किसी पे ज़ोर भी है
सुनेगा कोई तो फिर कुछ उसे सुनाई न दे
कि हर सुकूत के पर्दे में एक शोर भी है
वो हुस्न इश्क़-सिफ़त है वो इश्क़ हुस्न-नुमा
वो मेरा चाँद भी है वो मिरा चकोर भी है
शिकार कर कि दिलों कि सुनहरे जंगल में
ज़रूर रक़्स में बदमस्त कोई मोर भी है
हज़ार जान से हम एक हैं ये सच है 'शाज़'
रिवाज-ओ-रस्म का लेकिन दिलों में चोर भी है
ग़ज़ल
किसी का कोई ठिकाना है कोई ठोर भी है
शाज़ तमकनत