किसी का अक्स-ए-बदन था न वो शरारा था
तो मैं ने ख़ेमा-ए-शब से किसे पुकारा था
कहाँ किसी को थी फ़ुर्सत फ़ुज़ूल बातों की
तमाम रात वहाँ ज़िक्र बस तुम्हारा था
मकाँ में क्या कोई वहशी हवा दर आई थी
तमाम पैरहन-ए-ख़्वाब पारा पारा था
उसी को बार-ए-दिगर देखना नहीं था मुझे
मैं लौट आया कि मंज़र वही दोबारा था
सुबुक-सरी ने गिरानी अजीब की दिल पर
है अब ये बोझ कि वो बोझ क्यूँ उतारा था
शब-ए-सियाह सफ़र ये भी राएगाँ तो नहीं
वो क्या हुआ जो मिरे साथ इक सितारा था
ग़ज़ल
किसी का अक्स-ए-बदन था न वो शरारा था
अहमद महफ़ूज़