किसी गुल में नहीं पाने की तू बू-ए-वफ़ा हरगिज़
अबस अपना दिल ऐ बुलबुल चमन में मत लगा हरगिज़
तबीबों से इलाज-ए-इश्क़ होता है निपट मुश्किल
हमारे दर्द की उन से नहीं होने की दवा हरगिज़
तजा घर एक और सारे बयाबाँ का हुआ वारिस
कोई मजनूँ सा अय्यारा न होगा दूसरा हरगिज़
बहार आई है क्यूँकर अंदलीबें बाग़ में जावें
क़फ़स के दर के तईं करता नहीं सय्याद वा हरगिज़
न थे आशिक़ किसी बे-दाद पर हम जब तलक 'ताबाँ'
हमारे दिल के तईं कुछ दर्द-ओ-ग़म तब तक न था हरगिज़
ग़ज़ल
किसी गुल में नहीं पाने की तू बू-ए-वफ़ा हरगिज़
ताबाँ अब्दुल हई