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किसी गोशे में दुनिया के मकीं होते हुए भी | शाही शायरी
kisi goshe mein duniya ke makin hote hue bhi

ग़ज़ल

किसी गोशे में दुनिया के मकीं होते हुए भी

मोहम्मद आबिद अली आबिद

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किसी गोशे में दुनिया के मकीं होते हुए भी
वो मेरे साथ रहता है नहीं होते हुए भी

मुसलसल आज़माइश में मुझे ज़ालिम ने रक्खा
किया मैं ने नहीं सज्दा जबीं होते हुए भी

मुसलसल मारते रहते हैं शब-ख़ूँ ज़ेहन-ओ-दिल पर
अज़ीज़ाँ रफ़्तगाँ ज़ेर-ए-ज़मीं होते हुए भी

गुज़ारी हम ने सारी ज़िंदगी इश्क़-ए-बुताँ में
मुकम्मल उस की वहदत पर यक़ीं होते हुए भी

लिए फिरता है क़ातिल हाथ में ख़ंजर बरहना
मुहय्या पैरहन में आस्तीं होते हुए भी

मैं ज़र्रा ख़ाक का हूँ वो सितारा आसमाँ का
वो मुझ से दूर है मेरे क़रीं होते हुए भी

न-जाने कौन सी मिट्टी का 'आबिद' भी बना है
हमेशा ख़ुश नज़र आया हज़ीं होते हुए भी