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किसी दश्त का लब-ए-ख़ुश्क हूँ जो न पाए मुज़्दा-ए-आब तक | शाही शायरी
kisi dasht ka lab-e-KHushk hun jo na pae muzhda-e-ab tak

ग़ज़ल

किसी दश्त का लब-ए-ख़ुश्क हूँ जो न पाए मुज़्दा-ए-आब तक

सलीम अहमद

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किसी दश्त का लब-ए-ख़ुश्क हूँ जो न पाए मुज़्दा-ए-आब तक
कभी आए भी मिरी सम्त को तो बरस न पाए सहाब तक

मैं तलब के दश्त में फिर चुका तो ये राज़ मुझ पे अयाँ हुआ
मिरी तिश्नगी के ये फेर हैं कि जो आब से हैं सराब तक

तुझे जान कर ये पता चला तू मक़ाम-ए-दीद में और था
कई मरहले हैं फ़रेब के मिरी आँख से मिरे ख़्वाब तक

मैं वो मअ'नी-ए-ग़म-ए-इश्क़ हूँ जिसे हर्फ़ हर्फ़ लिखा गया
कभी आँसुओं की बयाज़ में कभी दिल से ले के किताब तक