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किसी भी ज़ख़्म का दिल पर असर न था कोई | शाही शायरी
kisi bhi zaKHm ka dil par asar na tha koi

ग़ज़ल

किसी भी ज़ख़्म का दिल पर असर न था कोई

सहर अंसारी

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किसी भी ज़ख़्म का दिल पर असर न था कोई
ये बात जब की है जब चारा-गर न था कोई

किसी से रंग-ए-उफ़ुक़ ही की बात कर लेते
अब इस क़दर भी यहाँ मो'तबर न था कोई

बनाए जाऊँ किसी और के भी नक़्श-ए-क़दम
ये क्यूँ कहूँ कि मिरा हम-सफ़र न था कोई

गुज़र गए तिरे कूचे से अजनबी की तरह
कि हम से सिलसिला-ए-बाम-ओ-दर न था कोई

जिसे गुज़ार गए हम बड़े हुनर के साथ
वो ज़िंदगी थी हमारी हुनर न था कोई

अजीब होते हैं आदाब-ए-रुख़्सत-ए-महफ़िल
कि उठ के वो भी चला जिस का घर न था कोई

हुजूम-ए-शहर में शामिल रहा और इस के ब'अद
'सहर' उधर भी गया मैं जिधर न था कोई