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किसी भी शहर का मौसम सुहाना छोड़ देते हैं | शाही शायरी
kisi bhi shahr ka mausam suhana chhoD dete hain

ग़ज़ल

किसी भी शहर का मौसम सुहाना छोड़ देते हैं

खुर्शीद अकबर

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किसी भी शहर का मौसम सुहाना छोड़ देते हैं
गराँ हो जाएँ तो हम आब-ओ-दाना छोड़ देते हैं

फ़क़त इक भूल ने माँ बाप को अलक़त किया घर में
कि बेटे जब सियाने हूँ कमाना छोड़ देते हैं

मियाँ बीवी के रिश्ते एतिमादों की अमानत हैं
मगर इक आँख दोनों ग़ाएबाना छोड़ देते हैं

उन्हें मा'लूम हैं मजबूर जेबों के तक़ाज़े सब
वो इन में ख़ूबसूरत सा बहाना छोड़ देते हैं

हमारी फ़ाक़ा-मस्ती आसमाँ के पेट भरती है
हम अपने पाँव के नीचे ख़ज़ाना छोड़ देते हैं