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किसी बे-दर्द को ज़ुल्म-ओ-सितम का शौक़ जब होगा | शाही शायरी
kisi be-dard ko zulm-o-sitam ka shauq jab hoga

ग़ज़ल

किसी बे-दर्द को ज़ुल्म-ओ-सितम का शौक़ जब होगा

नूह नारवी

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किसी बे-दर्द को ज़ुल्म-ओ-सितम का शौक़ जब होगा
ये मेरा एक दिल लाखों दिलों में मुंतख़ब होगा

हमारा और उन का सामना महशर में जब होगा
वो जल्सा वो समाँ वो मा'रका भी कुछ अजब होगा

कोई ज़िंदा रहे दुनिया में क्या अगली उमीदों पर
अभी तो हिज्र का रोना है होगा वस्ल जब होगा

लड़कपन जा चुका उन का जवानी आने वाली है
कभी मुझ पर जफ़ा होती थी लेकिन क़हर अब होगा

तुम्हारे वस्ल की साअ'त हमेशा टलती रहती है
ख़ुदा जाने कहाँ होगा किसे मा'लूम कब होगा

अभी लज़्ज़त नहीं उस को मिली आज़ार-ए-पिन्हाँ की
जो होगा भी तो होते होते दिल ईज़ा-तलब होगा

वो अपने वा'दा-ए-दीदार से फिरने को फिर जाएँ
मगर ये तो समझ लें बेवफ़ा किस का लक़ब होगा

मुझे इज़हार-ए-उल्फ़त पर ये उन से दाद मिलती है
तुम्हारा इश्क़ इक दिन मेरी ज़िल्लत का सबब होगा

भरी महफ़िल में उन को छेड़ने की क्या ज़रूरत थी
जनाब-ए-'नूह' तुम सा भी न कोई बे-अदब होगा