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किसे मजाल जो टोके मिरी उड़ानों को | शाही शायरी
kise majal jo Toke meri uDanon ko

ग़ज़ल

किसे मजाल जो टोके मिरी उड़ानों को

अासिफ़ साक़िब

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किसे मजाल जो टोके मिरी उड़ानों को
मैं ख़ाकसार समझता हूँ आसमानों को

सनद ख़ुलूस की माँगे न मुझ से मुस्तक़बिल
मैं साथ ले के चला हूँ गए ज़मानों को

ज़मीन बिक गई सारी अदू के पास मिरी
दुआएँ देता हूँ मैं आप के लगानों को

नज़र की हद में सिमट आए अजनबी चेहरे
तलाश करने जो निकला मैं मेहरबानों को

समेट ले गए सब रहमतें कहाँ मेहमान
मकान काटता फिरता है मेज़बानों को

मैं संग-ए-मील के रेज़े सँभाल लूँ 'साक़िब'
सफ़र की लाज समझता हूँ इन निशानों को