किसे ख़बर थी कि ज़ेहन-ओ-दिल में अजीब सा इंतिशार होगा
वो वक़्त आएगा बे-यक़ीनी का चार-जानिब ग़ुबार होगा
ये साफ़ ज़ाहिर है ज़िंदगी में सुकूँ की होगी न कोई सूरत
कहीं ख़िज़ाँ की इजारा-दारी कहीं फ़रेब-ए-बहार होगा
यहाँ का आईन ही अजब है कि तर्ज़-ए-नौ का ये मय-कदा है
जो बेकसों का लहू पिएगा वो मय-कशों में शुमार होगा
न छेड़िए नग़्मा-ए-मोहब्बत कि ये है दौर-ए-फ़रेब-कारी
दिलों की ख़ुश-रंग वादियों में कुदूरतों का ग़ुबार होगा
चले तो हो 'अर्श' राह-ए-हक़ पर लिए हुए दिल में अज़्म लेकिन
जहाँ जहाँ भी क़दम पड़ेंगे वहीं वहीं ख़ारज़ार होगा
ग़ज़ल
किसे ख़बर थी कि ज़ेहन-ओ-दिल में अजीब सा इंतिशार होगा
अर्श सहबाई