किसे ख़बर थी कि इस को भी टूट जाना था
हमारा आप से रिश्ता बहुत पुराना था
हम अपने शहर से हो कर उदास आए थे
तुम्हारे शहर से हो कर उदास जाना था
सदा लगाई मगर कोई भी नहीं पल्टा
हर एक शख़्स न जाने कहाँ रवाना था
यूँ चुप हुआ कि फिर आँखें ही डबडबा उट्ठीं
न जाने उस को अभी और क्या बताना था
किसे पड़ी थी मिरा हाल पूछता मुझ से
मुझे तो रस्म निभानी थी मुस्कुराना था
भनक न जाने ये कैसे लगी हवाओं को
कि मुझ को राहगुज़र पर दिया जलाना था
छुपी थी इस में ही तम्हीद भी जुदाई की
हमारा आप से मिलना तो इक बहाना था
तुझे ख़बर ही नहीं मेरे जीतने वाले
तिरे लिए तो हमेशा ही हार जाना था
निगाह-ए-शौक़ से यूँ ग़ैर को तिरा तकना
'नवाज़' और नहीं कुछ मुझे सताना था
ग़ज़ल
किसे ख़बर थी कि इस को भी टूट जाना था
सरफ़राज़ नवाज़