किसे हम अपना कहें कोई ग़म-गुसार नहीं
हमें जब अपने पराए पे ए'तिबार नहीं
हम अपने दौर की सच्चाइयों को लिखते हैं
क़लम हमारा किसी का तो मुस्तआ'र नहीं
जो बे-वफ़ा थे वही लोग पा गए ए'ज़ाज़
मिरी वफ़ाओं का अब तक कहीं शुमार नहीं
हमारे सर पे बरस जाएँगे कहाँ पत्थर
तुनक-मिज़ाजी-ए-मौसम का ए'तिबार नहीं
दुआएँ दे के जो बच्चों को शहर भेजेंगे
अब ऐसे गाँव में कोई बुजु़र्गवार नहीं
हज़ार मुफ़लिस-ओ-नादार मैं सही 'रहबर'
ख़ुदा का शुक्र किसी का भी क़र्ज़-दार नहीं
ग़ज़ल
किसे हम अपना कहें कोई ग़म-गुसार नहीं
हसीब रहबर