किस तरह रख लूँ साथ किसी हम-सफ़र को मैं
पहचानता हूँ ख़ूब हर इक मो'तबर को मैं
दामन में जिस के खेल रही हो शब-ए-सियाह
कैसे करूँ क़ुबूल भला इस सहर को मैं
रोता है दिल सियासत-ए-अहद-ए-जदीद पर
जब देखता हूँ ग़म से परेशाँ बशर को मैं
उम्र-ए-दराज़ 'ख़िज़्र' मुबारक हो आप को
अपना रहा हूँ ज़िंदगी-ए-मुख़्तसर को मैं
'रहबर' नशात-ओ-ऐश की मंज़िल क़रीब है
तय कर चुका हूँ ग़म की हर इक रहगुज़र को मैं
ग़ज़ल
किस तरह रख लूँ साथ किसी हम-सफ़र को मैं
रहबर जौनपूरी