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किस तरह जाऊँ कि ये आए हुए रात में हैं | शाही शायरी
kis tarah jaun ki ye aae hue raat mein hain

ग़ज़ल

किस तरह जाऊँ कि ये आए हुए रात में हैं

अली ज़ुबैर

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किस तरह जाऊँ कि ये आए हुए रात में हैं
ये अंधेरे नहीं हैं साए मिरी घात में हैं

मिलता रहता हूँ मैं उन से तो ये मिल लेते हैं
यार अब दिल में नहीं रहते मुलाक़ात में हैं

ये तो नाकाम असासा है समुंदर के पास
कुछ ग़ज़बनाक सी लहरें मिरे जज़्बात में हैं

ये धुएँ में जो नज़र आते हैं सरसब्ज़ यहाँ
ये मकाँ शहर में हो कर भी मज़ाफ़ात में हैं

दिल का छूना था कि जज़्बात हुए पत्थर के
ऐसा लगता है कि हम शहर-ए-तिलिस्मात में हैं

मैं ही तकरार हूँ और मैं ही मुकर्रर हूँ यहाँ
वक़्त पर चलते हुए दिन मिरी औक़ात में हैं