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किस से हूँ दाद-ख़्वाह कोई दादरस नहीं | शाही शायरी
kis se hun dad-KHwah koi dadras nahin

ग़ज़ल

किस से हूँ दाद-ख़्वाह कोई दादरस नहीं

इमदाद अली बहर

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किस से हूँ दाद-ख़्वाह कोई दादरस नहीं
वो कुश्तनी हूँ मैं कि किसी को तरस नहीं

ज़ाहिद किसी विसाल-ए-सनम की हवस नहीं
पत्थर का बुत है तू कि तुझे हिस्स-ओ-मस नहीं

वो ना-तवाँ हूँ कि मिरे दिल को है यक़ीं
आँधी की झोंके चलते हैं बाद-ए-नफ़स नहीं

जब तक कि तुम न आओगे रगड़ूँगा एड़ियाँ
मैं भी हूँ सख़्त-जान जो तुम को तरस नहीं

ज़ब्त-ए-फ़ुग़ाँ से उ'ज़्व-ए-बदन घुल चले तमाम
मैं कारवान-ए-रेग-ए-रवाँ हूँ जरस नहीं

दुनिया की ने'मतों से ये सेरी है रूह को
बोसा भी यार दे तो कहूँ मैं हवस नहीं

कुछ तो हमारी रोने में तख़फ़ीफ़ हो गई
बारिश जो अगले साल थी अब की बरस नहीं

परवाना-ओ-चराग़ पर आता है मुझ को रश्क
किस तरह तुम से उड़ के लिपट जाऊँ बस नहीं

ऐ शहसवार उस का चमकना दलील है
आहू-ए-ख़ावरी है ये तेरा फ़रस नहीं

हम मय-कशों की बज़्म में है बे-तकल्लुफ़ी
कुछ दाना-हा-ए-सुब्हा-सिफ़त पेश-ओ-पस नहीं

बेताबियाँ यही हैं तो इक दिन नजात है
सय्याद या तो मैं ही नहीं या क़फ़स नहीं

अपने लिए है मर्ग गुलों की मफ़ारिक़त
है गुम्बद-ए-मज़ार हमारा क़फ़स नहीं

ऐ 'बहर' इस मक़ाम पर अटका है जा के दिल
पाए-ए-ख़्याल की भी जहाँ दस्तरस नहीं