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किस सलीक़े से वो मुझ में रात-भर रह कर गया | शाही शायरी
kis saliqe se wo mujh mein raat-bhar rah kar gaya

ग़ज़ल

किस सलीक़े से वो मुझ में रात-भर रह कर गया

फ़रहत एहसास

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किस सलीक़े से वो मुझ में रात-भर रह कर गया
शाम को बिस्तर सा खोला सुब्ह को तह कर गया

वक़्त-ए-रुख़्सत था हमारे बाहर अंदर इतना शोर
कुछ कहा था उस ने लेकिन जाने क्या कह कर गया

क़त्ल होते सब ने देखा था भरे बाज़ार में
ये न देखा ख़ूँ मिरा किस की तरफ़ बह कर गया

डूबना ही था सो डूबा चाँद उस के वस्ल का
रात को लेकिन हमेशा की शब मुहय्या कर गया

सिर्फ़ मिट्टी हो के रहने में तहफ़्फ़ुज़ है यहाँ
जिस ने कोशिश की मकाँ होने की बस ढह कर गया

चाल जब भी मिल नहीं पाई ज़मीं की चाल से
कैसा कैसा सर-बुलंद आया था और ढह कर गया

दुख का आईना उलट देता है हर 'एहसास' को
ख़ुश गया इतना ही कोई जितने दुख सह कर गया