किस क़यामत की घुटन तारी है 
रूह पर कब से बदन तारी है 
कौन ये साया-फ़गन है आख़िर 
मेरे सूरज पे गहन तारी है 
बात क्या और नई हम सोचें 
जब वही चर्ख़-ए-कुहन तारी है 
सिर्फ़ हम ही तो नहीं टूटे हैं 
रास्तों पर भी थकन तारी है 
'शाज़' उड़ता ही चला जाता हूँ 
कैसी ख़ुश्बू की लगन तारी है
        ग़ज़ल
किस क़यामत की घुटन तारी है
ज़करिय़ा शाज़

