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किस क़यामत का न जाने वो अंधेरा होगा | शाही शायरी
kis qayamat ka na jaane wo andhera hoga

ग़ज़ल

किस क़यामत का न जाने वो अंधेरा होगा

कौसर नियाज़ी

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किस क़यामत का न जाने वो अंधेरा होगा
जिस ने ख़ुर्शीद-ए-जहाँ-ताब को घेरा होगा

हाँ इसी पर्दा-ए-ज़ुलमात से उभरेगी सहर
पंजा-ए-शब से कहाँ क़ैद सवेरा होगा

किस से उस हुस्न का अफ़्साना कहूँ जिस के लिए
मैं ने सोचा भी नहीं था कभी मेरा होगा

रात भर दी है दर-ए-दिल पे किसी ने दस्तक
वो ये कहता है नहीं कोई लुटेरा होगा

आज जी भर के उसे देख ले 'कौसर' सर-ए-बाम
जाने उन गलियों में फिर कब तिरा फेरा होगा