EN اردو
किस लिए सहरा के मुहताज-ए-तमाशा होजिए | शाही शायरी
kis liye sahra ke muhtaj-e-tamasha hojiye

ग़ज़ल

किस लिए सहरा के मुहताज-ए-तमाशा होजिए

रज़ा अज़ीमाबादी

;

किस लिए सहरा के मुहताज-ए-तमाशा होजिए
चाक कीजे सीने को और आफी सहरा होजिए

कुश्ता-ए-लब हो के कीजे जावेदाँ अब ज़िंदगी
क्यूँ अबस मिन्नत-कश-ए-ख़िज़्र-ओ-मसीहा होजिए

चश्म-ए-अहवल सब को देखे है ज़ियादा आप से
ऐन बीनाई है गर इस तरह बीना होजिए

कब तलक सर-गश्ता रहिए दिन को मिस्ल-ए-गर्द-बाद
रात को जूँ शम्अ' जलने को मुहय्या होजिए

इस क़दर हम दिल-गिरफ़्ता हैं कि मुश्किल है बहुत
उस के बंद-ए-जामा वा होने पे भी वा होजिए

मुझ से ये महजूबी और दुश्मन से ऐसा इख़्तिलात
शर्म कीजे बेवफ़ाई में न रुस्वा होजिए

आना यूँ तेवरी चढ़ाए मुँह बनाए फ़ाएदा
गर यही सूरत है मत तशरीफ़-फ़रमा होजिए

बुल-हवस का यूँ हदफ़ कीजे निशाना तीर का
ग़ाफ़िल अपनी क़दर से बे-दर्द इतना होजिए

जूँ जरस बाम-ओ-दर-ए-हर-ख़ाना से उट्ठेगा शोर
मत सफ़र से हश्र बरपा साज़-ए-सुह्हा होजिए

ख़ाना वीराँ कर के दीवाने बने तिस पर 'रज़ा'
कुछ न होए फिर भला क्या कीजिए क्या होजिए