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किस को मालूम था इक रोज़ कि यूँ होना था | शाही शायरी
kis ko malum tha ek roz ki yun hona tha

ग़ज़ल

किस को मालूम था इक रोज़ कि यूँ होना था

रईसुदीन रईस

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किस को मालूम था इक रोज़ कि यूँ होना था
मुस्तक़िल ज़ब्त का अंजाम जुनूँ होना था

उम्र भर ज़ीस्त के काग़ज़ पे मशक़्क़त लिखना
या'नी इक शख़्स का इस तरह भी ख़ूँ होना था

बे-हिसी मिलती मुझे शहर में जीने के लिए
या मिरा दस्त-ए-हुनर दस्त-ए-फ़ुसूँ होना था

फ़ासला क़ुर्ब की साअ'त में सिमट सकता था
सर झुका था तो तिरा दिल भी निगूँ होना था

बुनते रहना था 'रईस' आस के ताने-बाने
कुछ तो जीने के लिए वज्ह-ए-सुकूँ होना था