किस को बताते किस से छुपाते सुराग़-ए-दिल 
चुप साध ली है ज़ख़्म दिखाया न दाग़-ए-दिल 
कैसे करें बयान ग़म-ए-जाँ की दास्ताँ 
ऐ काश गुल खिलाए हमारा ये बाग़-ए-दिल 
गुज़रे हमारी ज़ीस्त के अय्याम इस तरह 
लबरेज़ आँसुओं से है गोया अयाग़-ए-दिल 
जब राख बन गए तो कहा ये हरीफ़ ने 
जल जल के वो जलाते रहे हैं चराग़-ए-दिल 
जिस से मिले तवील ज़माना गुज़र गया 
शायद उसी के ज़ेहन में हो कुछ सुराग़-ए-दिल 
चाहत की अब तो कोई भी हसरत नहीं रही 
सरसब्ज़ उस की याद से फिर भी है बाग़-ए-दिल 
रखती नहीं 'सबीला' कभी ऐब पर नज़र 
मसरूफ़ प्यार में रहा इस का फ़राग़-ए-दिल
        ग़ज़ल
किस को बताते किस से छुपाते सुराग़-ए-दिल
सबीला इनाम सिद्दीक़ी

