किस को बहलाते हो शीशे का गुलू टूट गया
ख़ुम मिरे मुँह से लगा दे जो सुबू टूट गया
कीजो उस ज़ुल्फ़ को मश्शात समझ कर शाना
लाख दिल टूटे अगर एक वो मू टूट गया
कुछ ख़बर है तुझे कहते हैं तिरे ज़ख़्मी का
आज फिर चाक का सीने के रफ़ू टूट गया
फ़लक उस दिल-शिकनी का तो मज़ा देखेगा
कोई दिल गर कभी ऐ अरबदा-जू टूट गया
थी मुरीदों के लिए क़ल्ब के सदमे की दलील
शैख़ का रक़्स में सम पर जो वुज़ू टूट गया
ध्यान उस शीशे का रखना कि न होगा पैवंद
दिल मिरी जान अगर यक सर-ए-मू टूट गया
उस ख़ुद-आरा के रहा हाथ में नित आईना
ग़म से आईना-दिल हाए न तू टूट गया
मोहतसिब ने तो ख़राबात में की ख़ूँ-रेज़ी
पर सर-ए-रिंद पे शब मय का कदू टूट गया
देखना तार-ए-मोहब्बत कि है मुश्किल फिर साँठ
रिश्ता-ए-दोस्ती ऐ 'लुत्फ' कभू टूट गया
ग़ज़ल
किस को बहलाते हो शीशे का गुलू टूट गया
मिर्ज़ा अली लुत्फ़