किनार-ए-शाम क्या जलने लगा है
हर इक बुझता दिया जलने लगा है
तिरा बख़्शा हुआ इक ज़ख़्म प्यारे
चली ठंडी हवा जलने लगा है
किसी के अक्स में थी ऐसी हिद्दत
तपिश से आईना जलने लगा है
सितारा सा कोई आगे रवाँ है
कि मेरा रास्ता जलने लगा है
ग़ज़ल
किनार-ए-शाम क्या जलने लगा है
ख़ुर्शीद रब्बानी