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किन सराबों का मुक़द्दर हुईं आँखें मेरी | शाही शायरी
kin sarabon ka muqaddar huin aankhen meri

ग़ज़ल

किन सराबों का मुक़द्दर हुईं आँखें मेरी

राशिद तराज़

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किन सराबों का मुक़द्दर हुईं आँखें मेरी
जुस्तुजू कर के जो पत्थर हुईं आँखें मेरी

कुछ न थम पाया है इस सैल-ए-रवाँ के आगे
कैसे अश्कों का समुंदर हुईं आँखें मेरी

ख़ून रोने के सिवा कुछ नहीं बाक़ी इन में
कैसे आसूदा-ए-ख़ंजर हुईं आँखें मेरी

कभी अनवार को मिल पाता नहीं इन में फ़रोग़
क्या ज़मीं छोड़ के बंजर हुईं आँखें मेरी

तेरे इरफ़ान की ये कौन सी मंज़िल है ख़ुदा
फिर नए ख़ाकों का मेहवर हुईं आँखें मेरी

रोज़ इक हादसा इस में भी समा जाता है
जीते-जी कैसा ये महशर हुईं आँखें मेरी

मिट गए अक्स भी यादों की तरह उन में 'तराज़'
ना-मुरादी का वो मंज़र हुईं आँखें मेरी