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किन नक़ाबों में है मस्तूर वो हुस्न-ए-मा'सूम | शाही शायरी
kin naqabon mein hai mastur wo husn-e-masum

ग़ज़ल

किन नक़ाबों में है मस्तूर वो हुस्न-ए-मा'सूम

सलीम अहमद

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किन नक़ाबों में है मस्तूर वो हुस्न-ए-मा'सूम
ऐ मिरी चश्म-ए-गुनहगार तुझे क्या मालूम

हाल-ए-दिल क़ाबिल-ए-इज़हार नहीं है वर्ना
मेरे चुप रहने का कुछ और नहीं है मफ़्हूम

अजनबी हूँ मैं तिरे शहर-ए-करम में ऐ दोस्त
क्या है इस शहर का दस्तूर मुझे क्या मा'लूम

दिल-ए-ख़ुश-फ़हम ये कहता था बुला लेगा कोई
जब मैं उट्ठा था तिरी बज़्म से हो कर मग़्मूम

वो शब-ए-हिज्र वो आसार-ए-सहर और दिल में
डूबती टूटती मिटती हुई यादों का हुजूम

एक पैकार है ख़ुद से जिसे कहते हैं वफ़ा
हुस्न-ए-ना-कर्दा तमन्ना को वफ़ा क्या मा'लूम

तालिब-ए-दाद-ए-सुख़न आप भी हैं किस से 'सलीम'
वो कि हैं जिस की ख़मोशी में भी लाखों मफ़्हूम