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किन मौसमों के यारो हम ख़्वाब देखते हैं | शाही शायरी
kin mausamon ke yaro hum KHwab dekhte hain

ग़ज़ल

किन मौसमों के यारो हम ख़्वाब देखते हैं

महताब हैदर नक़वी

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किन मौसमों के यारो हम ख़्वाब देखते हैं
जंगल पहाड़ दरिया तालाब देखते हैं

इस आसमाँ से आगे इक और आसमाँ पर
महताब से जुदा इक महताब देखते हैं

कल जिस जगह पड़ा था पानी का काल हम पर
आज उस जगह लहू का सैलाब देखते हैं

उस गुल पे आ रही हैं सौ तरह की बहारें
हम भी हज़ार रंगों के ख़्वाब देखते हैं

दरिया हिसाब ओ हद में अपनी रवाँ दवाँ है
कुछ लोग हैं कि इस में गिर्दाब देखते हैं

ऐ बे-हुनर सँभल कर चल राह-ए-शाइरी में
फ़न-ए-सुख़न के माहिर अहबाब देखते हैं