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कीजिए हुनर का ज़िक्र क्या आबरू-ए-हुनर नहीं | शाही शायरी
kijiye hunar ka zikr kya aabru-e-hunar nahin

ग़ज़ल

कीजिए हुनर का ज़िक्र क्या आबरू-ए-हुनर नहीं

अनीस देहलवी

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कीजिए हुनर का ज़िक्र क्या आबरू-ए-हुनर नहीं
सब के बनाए हम ने घर और हमारा घर नहीं

कैसा अजीब वक़्त है कोई भी हम-सफ़र नहीं
धूप भी मो'तबर नहीं साया भी मो'तबर नहीं

जो मेरे ख़्वाब में रही पैकर-ए-रंग-ए-नूर थी
ये तो लहूलुहान है ये तो मिरी सहर नहीं

भटके हुए हैं क़ाफ़िले कैसे मिलेंगी मंज़िलें
सब तो बने हैं राहज़न कोई भी राहबर नहीं

कैसा अजीब हादसा हम पे गुज़र गया 'अनीस'
राख कभी के हो चुके और हमें ख़बर नहीं