EN اردو
की थी जिस को शक्ल-ए-महबूबी अता | शाही शायरी
ki thi jis ko shakl-e-mahbubi ata

ग़ज़ल

की थी जिस को शक्ल-ए-महबूबी अता

अदीब सुहैल

;

की थी जिस को शक्ल-ए-महबूबी अता
सर उसी पत्थर से ज़ख़्मी हो गया

हर घड़ी रहता था आईना-ब-दस्त
ख़ुद-सताई के सिवा करता भी क्या

हो गया जब उस को इदराक-ए-जहाँ
तोड़ कर आईना उस ने रख दिया

वो हुआ है पैरहन का यूँ असीर
खुल के अब हँसना भी मुश्किल हो गया

इस से बढ़ कर और क्या हो उस का वस्फ़
आदमी तख़लीक़-ओ-तकमील-ए-ख़ुदा

उस को बाहर की ख़बर क्या बीच में
खींच कर बैठा हुआ है दायरा

है यहाँ ना-पैद ख़त्त-ए-मुसतक़ीम
ज़िंदगी है पेच-ओ-ख़म का सिलसिला