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किधर रवाँ है मिरा कारवाँ नहीं मा'लूम | शाही शायरी
kidhar rawan hai mera karwan nahin malum

ग़ज़ल

किधर रवाँ है मिरा कारवाँ नहीं मा'लूम

रघुनाथ सहाय

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किधर रवाँ है मिरा कारवाँ नहीं मा'लूम
नसीब ले के चला है कहाँ नहीं मा'लूम

हमारा ख़िर्मन-ए-दिल भी तो जल चुका यारब
गिरेगी अब कहाँ बर्क़-ए-तपाँ नहीं मा'लूम

बस इक निगाह-ए-मोहब्बत से उन को देखा था
हैं मुझ से किस लिए वो बद-गुमाँ नहीं मा'लूम

बने हैं आज वही मुन्तज़िम गुलिस्ताँ के
कि जिन को फ़र्क़-ए-बहार-ओ-ख़िज़ाँ नहीं मा'लूम

अदू थी बर्क़ न दुश्मन था बाग़बाँ अपना
जलाया किस ने मिरा आशियाँ नहीं मा'लूम

बहार मुझ से है मैं पासबान-ए-गुलशन हूँ
मिरा मक़ाम तुझे बाग़बाँ नहीं मा'लूम

दिल-ए-'उमीद' भी था जिस के साथ साथ रवाँ
कहाँ पे लुट गया वो कारवाँ नहीं मा'लूम