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कि ख़ुद इंसान ढलता जा रहा है | शाही शायरी
ki KHud insan Dhalta ja raha hai

ग़ज़ल

कि ख़ुद इंसान ढलता जा रहा है

नजीब अहमद

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कि ख़ुद इंसान ढलता जा रहा है
खलंडरा सा कोई बच्चा है दरिया

समुंदर तक उछलता जा रहा है
न कुछ कहता न कुछ सुनता है कोई

फ़क़त पहलू बदलता जा रहा है
इधर मिलती नहीं साँसों से साँसें

ज़माना है कि चलता जा रहा है
नहीं उस को खिलौनों की ज़रूरत

वो अब ख़ुद ही बहलता जा रहा है
मकानों में नए रौज़न बना लो

हवा का रुख़ बदलता जा रहा है
'नजीब' अब तो शरार-ए-बे-हिसी से

तिरा चेहरा पिघलता जा रहा है