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ख़्वाहिशों ने बुना वो जाल अब के | शाही शायरी
KHwahishon ne buna wo jal ab ke

ग़ज़ल

ख़्वाहिशों ने बुना वो जाल अब के

कुमार पाशी

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ख़्वाहिशों ने बुना वो जाल अब के
बच निकलना हुआ मुहाल अब के

डूब जाऊँगा शब के साथ कहीं
देखना तुम मिरा कमाल अब के

मैं नहीं तीरा ख़ाक-दाँ में कहीं
दिल में आया ये क्या ख़याल अब के

याद-ए-माज़ी न ख़्वाब-ए-मुस्तक़बिल
यूँ हुआ है मिरा ज़वाल अब के

छूटे जाते हैं हाथ से पतवार
मुझ को मौज-ए-रवाँ सँभाल अब के