ख़्वाहिशों ने बुना वो जाल अब के
बच निकलना हुआ मुहाल अब के
डूब जाऊँगा शब के साथ कहीं
देखना तुम मिरा कमाल अब के
मैं नहीं तीरा ख़ाक-दाँ में कहीं
दिल में आया ये क्या ख़याल अब के
याद-ए-माज़ी न ख़्वाब-ए-मुस्तक़बिल
यूँ हुआ है मिरा ज़वाल अब के
छूटे जाते हैं हाथ से पतवार
मुझ को मौज-ए-रवाँ सँभाल अब के
ग़ज़ल
ख़्वाहिशों ने बुना वो जाल अब के
कुमार पाशी

