ख़्वाहिशें दुनिया की बार-ए-दोश-ओ-गर्दन हो गईं
रफ़्ता रफ़्ता मंज़िल-ए-उक़्बा की रहज़न हो गईं
ये हवा कैसी चली इस तंगना-ए-दहर में
शहर जंगल हो गए आबादियाँ बन हो गईं
चल सू-ए-गोर-ए-ग़रीबाँ ऐ हरीस-ए-माल-ओ-ज़र
देख कितनी आरज़ूएँ नज़्र-ए-मदफ़न हो गईं
कैसी रंगा-रंग शक्लें होंगी ऐ जोश-ए-बहार
मिट के जो गुल्गूना-ए-रुख़्सार-ए-गुलशन हो गईं
खुल नहीं सकती कभी कैफ़िय्यत-ए-बुग़्ज़-ओ-हसद
मेरी आहें पर्दा-ए-नामूस-ए-दुश्मन हो गईं
मेरे नग़्मों ने जो पाई क़ल्ब-ए-गुलशन में जगह
शाख़-ए-गुल पर बुलबुलें बार-ए-नशेमन हो गईं
जब मिरे नाले हुए क़द्द-ए-सनोबर से बुलंद
बुलबुलें साकित सर-ए-दीवार-ए-गुलशन हो गईं
जामा-ए-हस्ती हुआ सद-चाक जब मिस्ल-ए-सहर
ज़ीनतें दुनिया की गर्दा-गर्द-ए-दामन हो गईं
ग़ज़ल
ख़्वाहिशें दुनिया की बार-ए-दोश-ओ-गर्दन हो गईं
औज लखनवी