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ख़्वाहिशें अपनी सराबों में न रक्खे कोई | शाही शायरी
KHwahishen apni sarabon mein na rakkhe koi

ग़ज़ल

ख़्वाहिशें अपनी सराबों में न रक्खे कोई

ग़नी एजाज़

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ख़्वाहिशें अपनी सराबों में न रक्खे कोई
इन हवाओं को हबाबों में न रक्खे कोई

चंद लम्हों का ये जीना है ग़नीमत जानो
ज़िंदगी अपनी अज़ाबों में न रक्खे कोई

आज हर फ़र्द है इक हसरत-ए-ताबीर लिए
अब ख़यालात को ख़्वाबों में न रक्खे कोई

काम तहक़ीक़ के उनवाँ पे बढ़ेगा कैसे
गर सवालों को जवाबों में न रक्खे कोई

ये भी क्या ज़िद है कि काँटों को महकने दीजे
या'नी ख़ुशबू को गुलाबों में न रक्खे कोई

नेकियाँ कितनी हैं 'एजाज़' हिसार-ए-दिल में
ख़ूबियाँ हों तो ख़राबों में न रक्खे कोई