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ख़्वाहिश से कहीं कोई माहौल बदलता है | शाही शायरी
KHwahish se kahin koi mahaul badalta hai

ग़ज़ल

ख़्वाहिश से कहीं कोई माहौल बदलता है

सैफ़ी प्रेमी

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ख़्वाहिश से कहीं कोई माहौल बदलता है
दिल शम्अ' का जलता है तब मोम पिघलता है

देखें तो चराग़ों को अब कौन बुझाएगा
ताक़ों में लहू अपना हर रात को जलता है

सोचा है कि कुछ दिन को बेगाना ही बन जाएँ
हम अपना जिसे समझें बेगाना निकलता है

अब सख़्त ज़रूरत है मय-ख़ाना बदलने की
हर लब के लिए साक़ी पैमाना बदलता है

जिस राह से वो गुज़रें हर गाम बहाराँ हो
इक जिस्म नहीं चलता माहौल भी चलता है

ऐ दोस्त तिरे दर तक फैली हैं कमीं-गाहें
दिल एक मुसाफ़िर है गिरता है सँभलता है

हम हिज्र में जब जागे थी रात बहुत 'सैफ़ी'
दीदार का हर मौसम लम्हात में ढलता है