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ख़्वाहिश-ए-वस्ल ने उश्शाक़ को रुस्वा रक्खा | शाही शायरी
KHwahish-e-wasl ne ushshaq ko ruswa rakkha

ग़ज़ल

ख़्वाहिश-ए-वस्ल ने उश्शाक़ को रुस्वा रक्खा

रईसु दीन तहूर जाफ़री

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ख़्वाहिश-ए-वस्ल ने उश्शाक़ को रुस्वा रक्खा
हुस्न ने दिलकश-ओ-ख़ुश-रंग सरापा रक्खा

अपने किरदार के दाग़ों को छुपाने के लिए
मेरे आमाल पे तन्क़ीद को बरपा रक्खा

मेरे ना-कर्दा गुनाहों की नुमाइश के लिए
मुझ को ज़िंदाँ में लगा कर बड़ा ताला रक्खा

साफ़ इंकार न करने के बदल ज़ालिम ने
मेरी दिल-बस्तगी को वादा-ए-फ़र्दा रक्खा

कौन सी चीज़ गिरानी की बुलंदी पे नहीं
ख़ून-ए-नाहक़ मगर इस दौर ने सस्ता रक्खा

कर के महरूम उन्हें आब-ए-रवाँ से हम ने
नाम बे-आब गुज़रगाहों का दरिया रक्खा

अपने क़द से मिरा क़द देखा निकलता जो 'तुहूर'
कर के सर मेरा क़लम अपना सर ऊँचा रक्खा