ख़्वाहिश-ए-तख़्त न अब दिरहम-ओ-दीनार की गूँज
वादी-ए-चश्म में है हसरत-ए-दीदार की गूँज
ज़ख़्म-दर-ज़ख़्म सुख़न और भी होता है वसीअ
अश्क-दर-अश्क उभरती है क़लमकार की गूँज
काश मेरी भी समाअत को ठिकाना दे दे
दश्त-ए-महशर में तिरे साया-ए-दीवार की गूँज
आहटें भी नहीं करते मिरे आमाल कभी
एक आवाज़ निहाँ है मिरे किरदार की गूँज
जब बहुत ग़ौर किया है तो सुनाई दी है
मुफ़्लिस-ए-शहर की चुप में किसी ज़रदार की गूँज
जिस ने सूखी हुई मिटी से बनाए कूज़े
शहर-ए-ज़मज़म से उठी है उसी फ़नकार की गूँज
एक मुद्दत से भटकती हुई फिरती है 'सलीम'
कूचा-ए-दिल में मोहब्बत के तलब-गार की गूँज
ग़ज़ल
ख़्वाहिश-ए-तख़्त न अब दिरहम-ओ-दीनार की गूँज
सलीम सिद्दीक़ी