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ख़्वाहिश-ए-तख़्त न अब दिरहम-ओ-दीनार की गूँज | शाही शायरी
KHwahish-e-taKHt na ab dirham-o-dinar ki gunj

ग़ज़ल

ख़्वाहिश-ए-तख़्त न अब दिरहम-ओ-दीनार की गूँज

सलीम सिद्दीक़ी

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ख़्वाहिश-ए-तख़्त न अब दिरहम-ओ-दीनार की गूँज
वादी-ए-चश्म में है हसरत-ए-दीदार की गूँज

ज़ख़्म-दर-ज़ख़्म सुख़न और भी होता है वसीअ
अश्क-दर-अश्क उभरती है क़लमकार की गूँज

काश मेरी भी समाअत को ठिकाना दे दे
दश्त-ए-महशर में तिरे साया-ए-दीवार की गूँज

आहटें भी नहीं करते मिरे आमाल कभी
एक आवाज़ निहाँ है मिरे किरदार की गूँज

जब बहुत ग़ौर किया है तो सुनाई दी है
मुफ़्लिस-ए-शहर की चुप में किसी ज़रदार की गूँज

जिस ने सूखी हुई मिटी से बनाए कूज़े
शहर-ए-ज़मज़म से उठी है उसी फ़नकार की गूँज

एक मुद्दत से भटकती हुई फिरती है 'सलीम'
कूचा-ए-दिल में मोहब्बत के तलब-गार की गूँज