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ख़्वाहिश-ए-बाल-ओ-पर में रहता है | शाही शायरी
KHwahish-e-baal-o-par mein rahta hai

ग़ज़ल

ख़्वाहिश-ए-बाल-ओ-पर में रहता है

जावेद मंज़र

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ख़्वाहिश-ए-बाल-ओ-पर में रहता है
मुतमइन कौन घर में रहता है

लम्हा लम्हा सफ़र में रहता है
चाँद कब किस नगर में रहता है

जान-ए-जाँ आज-कल तिरा क़ातिल
कूचा-ए-चारा-गर में रहता है

भूल जाऊँ उसे मगर कैसे
वो जो मेरी नज़र में रहता है

हम तो सहरा-नवर्द हैं 'मंज़र'
ख़ौफ़ दीवार-ओ-दर में रहता है